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Thursday 8 September 2016

SHORT STORY APATNI

                                              अपत्‍नी
हम लोग अपने जूते समुद्र तट पर ही मैले कर चुके थे। जहाँ ऊंची - ऊंची सूखी रेत थी, उसमें चले थे और अब हरीश के जूतों की पॉलिश व मेरे पंजों पर लगी क्यूटेक्स धुंधली हो गयी थी। मेरी साड़ी क़ी परतें भी इधर-उधर हो गयीं थीं। मैंने हरीश से कहा, उन लोगों के घर फिर कभी चलेंगे।
हम कह चुके थे लेकिन!
मैं ने आज भी वही साड़ी पहनी हुई है। मैं ने बहाना बनाया। वैसे बात सच थी। ऐसा सिर्फ लापरवाही से हुआ था। और भी कई साड़ियां कलफ लगी रखीं थीं पर मैं, पता नहीं कैसे यही साड़ी पहन आई थी।
तुम्हारे कहने से पहले मैं यह समझ गया था। हरि ने कहा। उसे हर बात का पहले से ही भान हो जाता था, इससे बात आगे बढाने का कोई मौका नहीं रहता। फिर हम लोग चुप चुप चलते रहते, इधर उधर के लोगों व समुद्र को देखते हुए। जब हम घर में होते, बहुत बातें करते और बेफिक्री से लेटे लेटे ट्रांजिस्टर सुनते। पर पता नहीं क्यों बाहर आते ही हम नर्वस हो जाते। हरि बार बार अपनी जेब में झांक कर देख लेता कि पैसे अपनी जगह पर हैं कि नहीं, और मैं बार बार याद करती रहती कि मैं ने आलमारी में ठीक से ताला लगाया कि नहीं।
हवा हमसे विपरीत बह रही थी। हरीश ने कहा, तुम्हारी चप्पलें कितनी गन्दी लग रही हैं। तुम इन्हें धोती क्यों नहीं?
कोई बात नहीं, मैं इन्हें साड़ी में छिपा लूंगी। मैं ने कहा ।
हम उन लोगों के घर के सामने आ गये थे। हमने सिर उठा कर देखा, उनके घर में रोशनी थी।
उन्हें हमारा आना याद है।
उन्हें दरवाजा खोलने में पांच मिनट लगे। हमेशा की तरह दरवाजा प्रबोध ने खोला। लीला लेटी हुई थी। उसने उठने की कोई कोशिश न करते हुए कहा, मुझे हवा तीखी लग रही थी। उसने मुझे भी साथ लेटने के लिये आमंत्रित किया। मैं ने कहा, मेरा मन नहीं है। उसने बिस्तर से मेरी ओर फिल्मफेयर फेंका। मैंने लोक लिया।
हरि आंखें घुमा घुमा कर अपने पुराने कमरे को देख रहा था। वहा यहां बहुत दिनों बाद आया था। मैं ने आने ही नहीं दिया था। जब भी उसने यहां आना चाहा था, मैं ने बियर मंगवा दी थी और बियर की शर्त पर मैं उसे किसी भी बात से रोक सकती थी। मुझे लगता था कि हरि इन लोगों से ज्यादा मिला तो बिगड ज़ायेगा। शादी से पहले वह यहीं रहता था। प्रबोध ने शादी के बाद हमसे कहा था कि हम सब साथ रह सकते हैं। एक पलंग पर वे और एक पर हम सो जाया करेंगे, पर मैं घबरा गई थी। एक ही कमरे में ऐसे रहना मुझे मंजूर नहीं था, चाहे उससे हमारे खर्च में काफी फर्क पडता। मैं तो दूसरों की उपस्थिति में पांव भी ऊपर समेट कर नहीं बैठ सकती थी। मैं ने हरि से कहा था, मैं जल्दी नौकरी ढूँढ लूंगी, वह अलग मकान की तलाश करे।
प्रबोध ने बताया, उसने बाथरूम में गीज़र लगवाया है। हरीश ने मेरी तरफ उत्साह से देखा, चलो देखें।
हम लोग प्रबोध के पीछे पीछे बाथरूम में चले गये। उसने खोलकर बताया। फिर उसने वह पैग दिखाया जहां तौलिया सिर्फ खोंस देने से ही लटक जाता था। हरि बच्चों की तरह खुश हो गया।
जब हम लौट कर आये लीला उठ चुकी थी और ब्लाउज क़े बटन लगा रही थी। जल्दी जल्दी में हुक अन्दर नहीं जा रहे थे। मैं ने अपने पीछे आते हरि और प्रबोध को रोक दिया। बटन लगा कर लीला ने कहा, आने दो, साड़ी तो मैं उनके सामने भी पहन सकती हूँ।
वे अन्दर आ गये।
प्रबोध बता रहा था, उसने नए दो सूट सिलवाये हैं और मखमल का क्विल्ट खरीदा है, जो लीला ने अभी निकालने नहीं दिया है। लीला को शीशे के सामने इतने इत्मीनान से साड़ी बांधते देख कर मुझे बुरा लग रहा था।
और हरि था कि प्रबोध की नई माचिस की डिबिया भी देखना चाहता था। वह देखता और खुश हो जाता जैसे प्रबोध ने यह सब उसे भेंट में दे दिया हो।
लीला हमारे सामने कुरसी पर बैठ गई। वह हमेशा पैर चौड़े क़रके बैठती थी, हालांकि उसके एक भी बच्चा नहीं हुआ था। उसके चेहरे की बेफिक्री मुझे नापसंद थी। उसे बेफिक्र होने का कोई हक नहीं था। अभी तो पहली पत्नी से प्रबोध को तलाक भी नहीं मिला था। और फिर प्रबोध को दूसरी शादी की कोई जल्दी भी नहीं थी। मेरी समझ में लड़की को चिन्तित होने के लिये यह पर्याप्त कारण था।
उसे घर में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने कभी अपने यहाँ आने वालों से यह नहीं पूछा कि वे लोग क्या पीना चाहेंगे। वह तो बस सोफे पर पांव चौड़े र बैठ जाती थी।
हर बार प्रबोध ही रसोई में जाकर नौकर को हिदायत देता था। इसलिये बहुत बार जब हम चाय की आशा करते होते थे, हमारे आगे अचानक लेमन स्क्वैश आ जाता था। नौकर स्क्वैश अच्छा बनाने की गर्ज से कम पानी ज्यादा सिरप डाल लाता था। मैं इसलिये स्क्वैश खत्म करते ही मुंह में जिन्तान की एक गोली डाल लेती थी।
प्रबोध ने मुझसे पूछा, कहीं एप्लाय कर रखा है?
नहीं- मैंने कहा ।
ऐसे तुम्हें कभी नौकरी नहीं मिलनी। तुम भवन वालों का डिप्लोमा ले लो और लीला की तरह काम शुरु करो।
मैं चुप रही। आगे पढने का मेरा कोई इरादा नहीं था। बल्कि मैं ने तो बी ए भी रो रोकर किया है। नौकरी करना मुझे पसन्द नहीं था। वह तो मैं हरि को खुश करने के लिये कह देती थी कि उसके दफ्तर जाते ही मैं रोज
 आवश्यकता है कॉलम ध्यान से पढती हूँ और नौकरी करना मुझे थ्रिलिंग लगेगा।
फिर जो काम लीला करती थी उसके बारे में मुझे शुबहा था। उसने कभी अपने मुंह से नहीं बताया कि वह क्या करती थी। हरि के अनुसार, ज्यादा बोलना उसकी आदत नहीं थी। पर मैं ने आज तक किसी वर्किंग गर्ल को इतना चुप नहीं देखा था।
प्रबोध ने मुझे कुरेद दिया था। मैं भी कुरेदने की गर्ज से कहा, सूट क्या शादी के लिये सिलवाये हैं?
प्रबोध बिना झेंपे बोला - शादी में जरीदार अचकन पहनूंगा और सन एण्ड सैण्ड में दावत दूंगा। जिसमें सभी फिल्मी हस्तियां और शहर के व्यवसायी आयेंगे। लीला उस दिन इम्पोर्टेड विग लगायेगी और रूबीज़ पहनेगी।
लीला विग लगा कर, चौडी टांगे करके बैठेगी - यह सोच कर मुझे हंसी आ गई। मैं ने कहा, शादी तुम लोग क्या रिटायरमेन्ट के बाद करोगे क्या?
लीला अब तक सुस्त हो चुकी थी। मुझे खुशी हुई। जब हम लोग आये थे उसे डनलप के बिस्तर में दुबके देख मुझेर् ईष्या हुई थी। इतनी साधारण लडक़ी को प्रबोध ने बांध रखा था, यह देख कर आश्चर्य होता था। उसकी साधारणता की बात मैं अकसर हरि से करती थी। हरि कहता था कि लीला प्रबोध से भी अच्छा आदमी डिजर्व करती थी। फिर हमारी लडाई हो जाया करती थी। मुझे प्रबोध से कुछ लेना देना नहीं था। शायद अपने नितान्त अकेले और ऊबे क्षणों में भी मैं प्रबोध को ढलि न देती पर फिर भी मुझे चिढ होती थी कि उसकी पसन्द इतनी सामान्य है।
प्रबोध ने मेरी ओर ध्यान से देखा, तुम लोग सावधान रहते हो न अब?
मुझे सवाल अखरा। एक बार प्रबोध के डाक्टर से मदद लेने से ही उसे यह हक महसूस हो, मैं यह नहीं चाहती थी। और हरीश था कि उसकी बात का विरोध करता ही नहीं था।
प्रबोध ने कहा, आजकल उस डॉक्टर ने रेट बढा दिये हैं। पिछले हफ्ते हमें डेढ हजार देना पड़ा
लीला ने सकुचाकर, एक मिनट के लिये घुटने आपस में जो लिये।
कैसी अजीब बात है, महीनों सावधान रहो और एक दिन के आलस से डे हज़ार रूपये निकल जायें। प्रबोध बोला।
हरि मुस्कुरा दिया, उसने लीला से कहा, आप लेटिये, आपको कमजोरी महसूस हो रही होगी।
नहीं। लीला ने सिर हिलाया।
मेरा मूड खराब हो गया। एक तो प्रबोध का ऐसी बात शुरु करना ही बदतमीजी थी, ऊपर से इस सन्दर्भ में हरि का लीला से सहानुभूति दिखाना तो बिलकुल नागवार था। हमारी बात और थी। हमारी शादी हो चुकी थी। बल्कि जब हमें जरूरत पड़ी थी तो मुझे सबसे पहले लीला का ध्यान आया था। मैं ने हरि से कहा था, चलो लीला से पूछें, उसे ऐसे ठिकाने का जरूर पता होगा।
लीला मेरी तरफ देख रही थी, मैं ने भी उसकी ओर देखते हुए कहा, तुम तो कहती थी, तुमने मंगलसूत्र बनाने का आर्डर दिया है।
हाँ, वह कबका आ गया। दिखाऊं? लीला आलमारी की तरफ बढ ग़ई।
प्रबोध ने कहा, हमने एक नया और आसान तरीका ढूंढा है, लीला जरा इन्हें वह पैकेट दिखाना...।
मुझे अब गुस्सा आ रहा था। प्रबोध कितना अक्खड है - यह मुझे पता था। इसीलिये हरि को मैं इन लोगों से बचा कर रखना चाहती थी।
हरि जिज्ञासावश उसी ओर देख रहा है जहाँ लीला आलमारी में पैकेट ढूंढ रही है।
मैं ने कहा, रहने दो मैं ने देखा है।
प्रबोध ने कहा, बस ध्यान देने की बात यह है कि एक भी दिन भूलना नहीं है। नहीं तो सारा कोर्स डिस्टर्ब। मैं तो शाम को जब नौकर चाय लेकर आता है तभी एक गोली ट्रे में रख देता हूँ।
लीला आलमारी से मंगलसूत्र लेकर वापस आ गई थी, बोली - कभी किसी दोस्त के घर इनके साथ जाती हूँ तब पहन लेती हूँ।
मैं ने कहा, रोज तो तुम पहन भी नहीं सकती ना कोई मुश्किल खडी हो सकती है। कुछ ठहर कर मैं ने सहानुभूति से पूछा, अब तो वह प्रबोध को नहीं मिलती ?
लीला ने कहा, नहीं मिलती।
उसने मंगलसूत्र मेज पर रख दिया।
प्रबोध की पहली पत्नी इसी समुद्र से लगी सड़क के दूसरे मोड पर अपने चाचा के यहाँ रहती थी। हरि ने मुझे बताया था, शुरु-शुरु में जब वह प्रबोध के साथ समुद्र पर घूमने जाता था, उसकी पहली पत्नी अपने चाचा के घर की बालकनी में खड़ी रहती थी और प्रबोध को देखते ही होंठ दांतों में दबा लेती थी। फिर बालकनी में ही दीवार से लगकर बाँहों में सिर छिपा कर रोने लगती थी। जल्दी ही उन लोगों ने उस तरफ जाना छोड दिया था।
प्रबोध ने बात का आखिरी टुकड़ा शायद सुना हो क्योंकि उसने हमारी तरफ देखते हुए कहा, गोली मारो मनहूसों को! इस समय हम दुनिया के सबसे दिलचस्प विषय पर बात कर रहे हैं। क्यों हरि, तुम्हें यह तरीका पसन्द आया?
हरि ने कहा, पर यह तो बहुत भुलक्क है। इसे तो रात को दांत साफ करना तक याद नहीं रहता।
मैं कुछ आश्वस्त हुई। हरि ने बातों को ओवन से निकाल दिया था। मैं ने खुश होकर कहा, पता नहीं मेरी याददाश्त को शादी के बाद क्या हो गया है? अगर ये न हों तो मुझे तो चप्पल पहनना भी भूल जाये।
हरि ने अचकचा कर मेरे पैरों की तरफ देखा। वादे के बावजूद मैं पांव छिपाना भूल गई थी।
उठते हुए मैं ने प्रबोध से कहा, हम लोग बरट्रोली जा रहे हैं, आज स्पेशल सेशन है, तुम चलोगे?

प्रबोध ने लीला की तरफ देखा और कहा, नहीं अभी इसे नाचने में तकलीफ होगी।
                                                                                       ममता कालिया

Wednesday 31 August 2016

SHORT STORY "KAANSE KA GILAS"

                                          काँसे का गिलास

बड़ा खूबसूरत गिलास था वह। रंगबिरंगे डिजाइन वाला प्लास्टिक का पारदर्शी गिलास - जिसकी दो तहों के बीच कैद नीले पानी में सुनहरे हरे फूल पत्ते और तैरती मछलियाँ थीं। गिलास गिरने से तड़क गया था और उसके भीतर की सारी खूबसूरती जमीन पर बड़ी बेरहमी से बिखरी पड़ी थी ।
      पूरे रसोई घर में फैली चमकीली पन्नियाँ और रंगीन पानी में तैरती प्लास्टिक की रंगबिरंगी मछलियाँ साफ की जा चुकी थीं पर वह थी कि बुक्का फाड़ कर रोए जा रही थी। वह यानी चिल्की। छह साल की चिल्की। मेरी पोती।
       - बस्स! अब चुप्प! बहुत हो गया! काफी देर प्यार से समझा चुकने के बाद मैंने अपने स्वर में आए डाँट डपट के भाव को बेरोकटोक उस तक पहुँचने दिया।
       - पहले शोभाताई को डाँटो, उसने मेरा गिलास क्यों तोड़ा! रसोई में काम करती शोभा तक ले चलने के लिए वह मेरा हाथ पकड़ कर खींचने लगी।
       - पहले तेरे पापा को न डाँटूँ जिसने इतना महँगा गिलास तुझे ला कर दिया? मैंने उसके पापा और अपने बेटे निखिल के प्रति अपनी नाराजगी जताई।
      उसकी रुलाई एकाएक और तेज हो कर कानों को अखरने लगी।
       - उफ! अब क्या हो गया। मेरा धीरज जवाब दे रहा था।
       - पापा ने नहीं, वह सुबकने लगी। सुबकती रही। फिर धीरे से बोली, यह ममा ने ला कर दिया था।
       ममा यानी नेहा। मेरी बहू। मैं सकते में आ गई। वह जिसके नाम से हम सब अपना पल्ला बचा कर चलते थे,  जैसे वह अछूत हो,  इसी तरह जब-तब हमारे ठहरे हुए संसार को तहस नहस करने चली आती थी।
       नेहा को इस घर से गए एक साल होने को आया था पर चिल्की उसे भूलती नहीं थी। कभी लाल हेअर क्लिप,  कभी जयपुरी जूतियाँ, कभी टपरवेअर का टिफिन बॉक्स, कभी डोनल्ड डक की मूठ वाली छतरी, कभी बालों पर टँगा सनग्लास - चिल्की के सामने किसी न किसी बहाने से उसकी प्यारी ‘ममा’ आ कर ठहर जातीं और हमारे ‘हुश हुश’ करने के बावजूद ओझल होने का नाम नहीं लेती।
       अब चिल्की पर नाराज होना संभव नहीं था। उसका ध्यान गिलास से हटाना अब दूसरे नंबर पर चला गया था। सुबकती हुई चिल्की को मैंने अपनी बाँहों की ओट में ले लिया। चिल्की मेरे करीब सिमट आई और बड़ों की तरह रुलाई रोकने की कोशिश में उसकी हिचकियाँ तेज हो गईं।
       - सुन बेटा! एक कहानी सुनाÅऊँ तुझे? सुनेगी? चिल्की को बहलाने का अमोघ अस्त्र था यह!
       - पहले मेरा वो... सुंदरवाला ब्ल्यू गिलास... चिल्की गिलास से हटने को तैयार नहीं थी।
       एकाएक वह गिलास दुबारा टूटा और उसकी जगह एक चमकते हुए काँसे के गिलास ने ले ली – सँकरी पेंदी और चौड़े मुँहवाला एक लंबासा काँसे का गिलास... गिलास न हो, फूलदान हो जैसे।
       - अरे बेटा, गिलास की ही कहानी तो सुना रही हूँ तुझे। सुनेगी नहीं, रानी बेटी?
       - बोलो, उसने जैसे मुझ पर एहसान किया,  सिर हिला कर हामी भर दी।
       - तब मैं तेरी ही तरह छह साल की थी। इत्ती छोटी। चिल्की जैसी।
       - हुँह, झूठ! वह सिसकी तोड़ती बोली, आप इत्ते छोटे कैसे हो सकते हो?
       - तो क्या मैं पचास साल की ही पैदा हुई थी - इत्ती बड़ी? अच्छा चल, मैं छह की नहीं, सोलह साल की थी, ठीक? मैं ठहाका मार कर हँस दी।
      मैं अपने बचपन में पहुँच गई जहाँ निवाड़वाली मंजियों (खटिया) के बीच खड़िया से आँगन में इक्का-दुक्का आँक कर मैं शटापू टप्पे वाला खेल खेलती थी। मुझे हँसी आ गई।
       वह मेरी पीठ पर धपाधप धौल जमाने लगी, हँसो मत! कहानी सुनाओ।
वह होंठों को एक कोने पर जरा-सा खींच कर मुस्कुराई। बिल्कुल अपनी माँ की तरह। उसके चेहरे पर नेहा दिखाई देने लगी।
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हाँ, तो मैं छोटी थी, चिल्की जितनी छोटी नहीं, उससे थोड़ी सी बड़ी। घर में मैं थी, मेरे ढेर सारे बड़े भाई-बहन थे, माँ और बाबूजी थे। बाबूजी की माँ भी थीं। यानी मेरी दादी। बहुत बहुत बूढ़ी थीं वो, पता है कितने साल की?
       - कितने...?
       - नब्बे से ऊपर।
       - नब्बे से ऊपर मतलब?
       - मतलब अबव नाइंटी। बहुत ही गोरी-चिट्टी। छोटी-सी, नाटी-सी। पर बड़ी सेहतमंद। ...गोरी इतनी कि उँगली गाल पे रखो तो लाली दब के फैल जाए.....पर थीं बिल्कुल सींक सलाई। चलती थीं तो ऐसे जैसे हवा में सूखा पत्ता उड़ता है। चलती क्या थीं, दौड़ती थीं जैसे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हों...
       - ये तो आप मेरी बात कर रहे हो!... नहीं सुननी मुझे कहानी...। चिल्की बिसूरने लगी।
-      लो, मेरी तो याददाश्त ही कमजोर होती जा रही है। हाँ, साल भर की चिल्की ने भी जब चलना सीखा तो चलती नहीं, दौड़ती थी... हम उसे बताते थे कि चिल्की, तेरे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हैं।
       - हाँ, तो बुढ़ापे में आदमी बच्चों जैसी हरकतें करने लगता है। हम उन्हें कहते, दादी, सोटी लाठी ले कर चलो नहीं तो गिर जाओगी पर वो कहाँ सुननेवाली। कुढ़ कर कहतीं - सोटी ले कर चले तेरी सास,  सोटी ले कर चलें मेरे दुश्मन,  मुझे सोटी की लोड़ (जरूरत) नईं... उन्हें सोटी ले कर चलने में शरम आती थी। छोटा सा कद था और पीठ झुकी हुई नहीं थी। सीधी चलती थीं। चलती क्या थीं, उड़ती थीं। किसी की बात नहीं सुनती थीं। फिर क्या होना था...
       - हाँ... गिर गईं?  चिल्की की आँखों में कौतूहल था।
       - हाँ, गिरना ही था न! बच्चे भी बात नहीं मानते तो चोट तो लगती है ना?
       चिल्की ने सिर हिलाया - मैंने भी ममा की बात नहीं मानी थी तो ये देखो...
       चिल्की के जेहन में अब भी जख्म ताजा थे। उसने अपनी बाईं आँख बंद कर पलक पर उँगली गड़ा दी। आँख के ऊपर भौंह से लगे हुए छह टाँकों के निशान उभर आए थे। उस दिन निखिल के ऑफिस से घर में नया फर्नीचर आया था। फर्नीचर, जो उसके ऑफिस के लिए पुराना हो चुका था और वहाँ के कर्मचारियों को औने पौने भाव में बेचा जा रहा था। निखिल ने सोफा, दीवान और बीच की मेज खरीद ली थी। बर्मा टीक की बड़ी खूबसूरत मेज थी। चिल्की ने ज्यों ही नया सोफा देखा, लगी उस पर कूदने। नेहा चिल्लाती रही कि मेज के कोने नुकीले हैं, उन्हें गोल करवाना है, कूद मत नहीं तो लगेगा आँख पे। उसने तीन बार टोका और तीनों बार चिल्की और जोर से सोफे के डनलप पर कूदी। बस, पैर जरा सा मुड़ा और सीधे जा गिरी मेज के कोने पर। चिल्की की बाईं आँख लहूलुहान। कमरे में खून ही खून। नेहा ने देखा और लगी चीखने। कहा था न, सुनती तो है ही नहीं। उसको उठा कर दौड़े अस्पताल। सबकी जान साँसत में। चोट गहरी थी पर आँख बच गई थी। छह टाँके लगे। वह मेज उठा कर परछत्ती पर रखवा दिया। जब तक यह बड़ी नहीं हो जाती, यह मेज अब वहीं रहेगा, निखिल बड़बड़ाता रहा और नेहा उसे कोसती रही - अपने दफ्तर का यह कूड़ा-कचरा उठा कर घर लाने की जरूरत क्या थी! जमीन पर गद्दे और गावतकिए थे तो सोफे के बगैर भी घर कितना खुला खुला लगता था। अब कमरे में चलना मुहाल हो गया है। कहीं कुछ सस्ता देखा नहीं कि उठा कर घर में डाल दो। घर न हुआ, स्टोररूम हो गया।
       चिल्की तो उस दिन के बाद से कुछ सँभल कर चलने लगी। फिर कभी उसे टाँके नहीं लगे। पर दादी तो एक बार गिरीं तो फिर नहीं उठीं। कूल्हे की हड्डी चटक गई थी। डेढ़ महीने टाँग पर वजन बँधा रहा। हड्डी की तरेड़ तो ठीक हो गई पर जब तक हड्डी जुड़ती, टाँगें बिस्तर पर पड़े पड़े सूख गईं। अब टाँगों ने उनका वजन उठाने से इनकार कर दिया था।
       - फिर?
       - फिर क्या! बड़ी मुसीबत! हमेशा उड़ती-फिरती दादी बिस्तर से जा लगीं। ऊपर से उनकी जिद कि अब तो वजन उतर गया है, अब बिस्तर पर उनको पॉट नहीं चाहिए। उनके लिए शहर से दो कुर्सियाँ मँगवाई गईं। एक पॉटवाली, एक पहिएवाली जिस पर बिठा कर उन्हें दिन में एक बार अमरूद और सीताफल के पेड़ के पास ले जाना पड़ता - किस अमरूद को थैली लगानी है, कौन सा सीताफल पक गया है, कौन-सा अमरूद बंदर आधा खा गया है, सब की खोज-खबर रखती थीं वो ... कौन-सी चाची कितने दिनों से हालचाल पूछने नहीं आयी... कौन आके बार बार उनसे उनकी उमर पूछता है...
       - कितने साल की थीं वो?
       - उन्हें अपनी ठीक ठीक उम्र कहाँ मालूम थी ...वो तो ऐसे बताती थीं, जनरल डायर ने गोलियाँ चलवाई थीं तो उन्होंने नाड़े वाली सलवार पहनना शुरू कर दिया था... गांधी जी का भाषण सुनके घर पहुँची तो तेरे दादाजी की नई नौकरी लगने की चिट्ठी आई थी ... उनकी हर याद किसी न किसी बड़ी घटना से जुड़ी थी... कोई उनसे कहता कि झाई जी, आप तो नब्बे टाप गए हो तो उन्हें बड़ा बुरा लगता, कहतीं - नहीं,  अभी तीन महीने बाकी है। मैं नब्बे की हुई नहीं और मुझे सब नब्बे की बताते हैं। और हो भी गई तो क्या, नब्बे से ऊपर आदमी जीना बंद कर देता है क्या? कोई उम्र पूछ लेता तो चिढ़ जातीं। एक बार तो एक रिश्तेदार से भिड़ गईं। उन्होंने उम्र पूछी तो बहुत धीरे से उनसे बोलीं - पहले तू बता, तू कितने साल का है। उसे सुनाई नहीं दिया। उसने कहा - क्या पूछा आपने? तो कहती है - अब तू मुझसे इतनी आहिस्ते पूछ। मैं तुझसे ज्यादा अच्छा सुन लेती हूँ,  मैं बिना चश्मा लगाए जपुजी साहिब का पाठ कर लेती हूँ फिर तू सत्तर का हुआ तो क्या और मैं नब्बे की दहलीज पे पहुँची तो क्या। लोग जब खुद ऊँचा सुनने लगते हैं तो सारी दुनिया उन्हें बहरी दिखाई देती है।
       चिल्की ने खिलखिल हँसना शुरु किया - आपकी दादी बहुत जोक मारती थीं। हैं न?
       - हाँ, बड़ी जिंदादिल थीं वो। अपनी सेहत का बड़ा ख्याल रखती थीं! शाम की चाय के साथ कुछ नमकीन खातीं जैसे चिवड़ा या निमकी या आगरे का दालमोठ - दालमोठ उनको बहुत पसंद था तो क्या करतीं - हथेलियों पे जो चिकनाई लगी रह जाती, उसको सबकी नजरें बचा कर हाथों और पैरों में रगड़ लेतीं। एक बार हम बच्चों ने उन्हें ऐसा  करते देख लिया। - छिः छिः छिः छिः, हमने कहा, दादी ये मिर्च मसालेवाला तेल रगड़ते हो, गंदा नहीं लगता?  जलन नहीं होती? उन्होंने हम बच्चों को पास बिठाया, बोलीं - अब कौन उठ के हाथ धोए। इस तरह एक पंथ दो काज होते हैं। - वो कैसे, झाई जी? हम पूछते तो कहतीं - देखो, ये... ये जो हमारे हाथों पैरों में रोएँ हैं न , ये छोटे छोटे रोएँ, ये हमारे शरीर के दीए हैं, दीपक हैं। जैसे दीयों को जलने के लिए तेल की जरुरत होती है न, वैसे ही इन्हें जलाए रखना है तो इनमें तेल डालना पड़ेगा। तभी तो ये गरम रहते हैं, खुश हो जाते हैं। देखो, ये चहक गए ना! जब ये दीये बुझ जाते हैं तो शरीर ठंडा हो जाता है और बंदा सफर पे निकल जाता है। सफर पे... यानी उनका मतलब था मर जाता है... हमने कहा, पर ये नमकीन तेल क्यों लगाते हो, नहाते समय तेल की मालिश किया करो तो कहती थीं, वो तो मैं तेरी माँ से छुपा के करती हूँ, कड़वे तेल की शीशी रख छोड़ी है गुसलखाने में। माँ मना करतीं हैं क्या? हम पूछते, तो कहतीं - नहीं , मजाल उसकी कि मुझे मना करे पर तेरी माँ ने देख लिया तो सोचेगी नहीं, बुड्ढी के पैर कबर में लटके हैं और शरीर के मल्हार हो रहे हैं... कह कर अपनी ही बात पर खिलखिला कर हँसतीं।
       - ममा भी मुझे हर संडे को तेल की मालिश करके नहलाती थीं। ममा को तो मसाजवाली आंटी आके मसाज करती थीं। ममा तो पूरी नंगू हो जाती थी... चिल्की फिर हँसने लगी।
       मैंने लंबी साँस भरी । इस लड़की ने कैसी याददाश्त पाई है, नहीं तो बच्चे कहाँ इतना याद रखते हैं चार-पाँच साल की उम्र होती क्या है। माँ की कितनी कितनी तस्वीरें इसके जेहन में दर्ज हैं।
       एकाएक चिल्की का चेहरा बुझ गया - ममा अब कभी मिलने नहीं आएगी, दादी? चिल्की का स्वर रुआँसा हो गया। चिल्की को इतनी देर तक कहानी सुना सुना कर फुसलाना बेकार गया था।
       - आएगी क्यों नहीं! आएगी न!
            - कब? चिल्की की आँखों की नमी पर आँखें टिका पाना मुश्किल था - अब तो फोन भी नहीं करती।
            पहले कर लिया करती थी – दस-पंद्रह दिन में एक बार। उस दिन निखिल ने ही डाँट दिया - क्यों फोन करती हो बार-बार? उसे इस तरह परेशान करने से फायदा! अगर बेटी के लिए तुम्हारे मन में जरा भी माया-ममता बची रह गई है तो वह तुम्हें भूल सके, इसमें हमारी मदद करो। सात समंदर पार से अपनी आवाज सुना-सुना कर उसे हलकान मत करो। निखिल की आवाज में कड़वाहट थी और नेहा को कड़वाहट पसंद नहीं थी। उसने फोन पटक दिया और उसके बाद फिर कभी ब्लैंक कॉल तक नहीं आया। समय के साथ साथ रिश्ते धुँधलाने की कोशिश में थे।
       - अच्छा, वो गिलास की बात तो रह ही गई, चिल्कू?
       - अरे हाँ, चिल्की मेरे झाँसे में आ कर वापस चहक उठी, वो गिलास की कहानी तो आपने सुनाई ही नहीं...
       - वो गिलास तो दादी का था न बेटा, इसलिए तुझे पहले दादी की बात तो सुनानी थी न!
       - नहीं नहीं, अब आप गिलास की कहानी सुनाओ।
       - हाँ, तो दादी के पास एक गिलास था। काँसे का गिलास।
       - काँसा क्या होता है, दादी?
       मैंने आसपास नजर दौड़ाई। कोने में एक फूलदान था - काँसे का। देख, ऐसा होता है काँसा। इसके गिलास भी बनते हैं।
       - वो गिर जाए तो टूटता नहीं? चिल्की की आँखों में लुभा लेनेवाली मासूमियत थी।
       - काँसा बहुत नाजुक होता है। उसे फूल भी कहते हैं। जोर से गिरे तो टूट भी जाता है पर दादी का गिलास बड़ा मजबूत था। खास तरह की बनावट थी उसकी, गिरे तो भी टूटता नहीं था।
      - रिश्तों को इस तरह मत तोड़ो नेहा! कैरियर बनाने के बहुत सारे मौके आएँगे। निखिल नहीं चाहता तो मत जाओ। साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से उसे समझाने की कोशिश की थी मैंने। कम से कम चिल्की के बारे में सोचो, वह माँ के बगैर रह पाएगी?
       - क्यों, बाप के बगैर नहीं रहती क्या जब निखिल शिप पर चले जाते हैं – छह-छह महीने नहीं लौटते! - नेहा भड़क गई थी - इस तरह के मौके बार-बार नहीं आते लेकिन आप लोग हैं कि मेरा साथ देना ही नहीं चाहते! बीसेक दिन बेहद तनाव में गुजरे... बाद में निखिल ने हमें बीच में बोलने से टोक दिया। पता चला, कैरियर और जॉब का तो बहाना था, इसकी तह में नेहा और निखिल की आपसी अनबन थी। जिस दिन नेहा को जाना था, वह चिल्की से मिलने आई थी। एक बार उसे भीगी आँखों से प्यार किया, फिर चिल्की को गोद से उतार कर ऐसे एहतियात से रखा जैसे कोई ‘हैंडल विद केअर’ सामान जमीन पर रखता है। बच्चों की छठी इंद्रिय बहुत तेज होती है। गोद से उतरते ही चिल्की ने सिसकियाँ ले ले कर रोना शुरू कर दिया था और नेहा ने उसे दुबारा भींच लिया था। माँ के आलिंगन की गर्माहट से चिल्की पिघल गई थी। कभी गलती से भी नेहा के नाम के साथ निखिल कोई विशेषण जड़ देता तो चिल्की फौरन टोक देती - मेरी ममा को ऐसे मत बोलो। ममा अच्छी है। ‘अच्छी’ को वह जोर दे कर बोलती।
       सहसा चिल्की मुझे जमीन पर लौटा लाई - दादी, ये तो हमारे घर से आया है ना?
       - क्या? क्या आया है तेरे घर से?
       - ये। ये। ये। वह दौड़ कर फूलदान के पास जा कर खड़ी हो गई - ये दादी, ये तो हमारे घर में था ना।
       मैं भीतर तक हिल गई। कितनी जल्दी दुनियावी चीजें बच्चों को भी अपनी चपेट में ले लेती हैं।
      मैंने अपने को फौरन समेटा - पर ये घर भी तो तेरा है न। नहीं है? 
       - ये तो पापा का घर है, चिल्की ने फतवा दिया।
       - अच्छा बाबा, ठीक है। ये पापा का, वो तेरा। मेरा कोई घर नहीं। मैंने रोनी सूरत बना ली।
       - नहीं नहीं, अच्छी दादी, ये तो आपका घर है। पापा का भी और ... उसने मेरे गले में बाँहें डाल दीं - और मेरा भी। चिल्की अचानक अपनी उम्र से बड़ी हो गई थी और चहक कर अब मुझे झाँसा दे रही थी। मैं उसकी समझदारी पर हतप्रभ थी। यह बच्चों की नई पीढ़ी है। हमारे समय से कितनी अलग - व्यावहारिक और डिप्लोमेट।
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नेहा के जाने के बाद तीन चार महीने घर वहीं बना रहा था। चिल्की को वही घर अच्छा लगता था क्योंकि वहाँ से उसका स्कूल नजदीक था और जब तब उसकी सहेलियाँ खेलने आ जाती थीं। पर मेरे लिए दो घरों को चलाना बहुत मुश्किल था और जिस तरह नेहा छोड़ कर गई थी, उसके हृदय परिवर्तन की गुंजाइश बहुत कम थी। देर सबेर उस घर को समेटना ही था, निखिल को फिर लंबे दौरे पर जाना था इसलिए हमने उस घर को समेटने का फैसला लिया। चिल्की को उस घर से आने के लिए राजी करना टेढ़ा काम था। उसका कमरा हमने वैसा का वैसा वहाँ से शिफ्ट कर इस घर में हूबहू तैयार कर दिया था पर चिल्की थी कि न अपना घर भूलती थी, न कमरा और न उसे जिसने कमरा बड़े मन से बनाया था। 
       - पर दादी का भी एक घर था। ठीक? मैंने कहानी के छूटते जाते सिरे को थामा।
       - हाँ, और उनका वो गिलास ... चिल्की कहानी सुनने की मुद्रा में फिर बैठ गई।
- तो दादी उस गिलास में ही सुबह पानी पीती थीं, फिर उसमें चाय, फिर नाश्ते के साथ गिलास भर दूध, फिर खाने के साथ पानी, फिर शाम की चाय, फिर...
- क्यों, उनके घर में और गिलास नहीं था? चिल्की ने यह सवाल बिल्कुल चिल्की की तरह ही किया।
- नहीं, गिलास तो बहुत थे बेटा पर उनको वही गिलास पसंद था। हम सब बच्चे उसको पटियाला गिलास कहते थे। साइज में इत्ता...आ बड़ा था न इसलिए। गिलास का खूब मजाक भी उड़ाते थे। कहते थे - दादी, आप गिलास को ले कर ऊपर कैसे जाओगे?
- ही ही ही ही... चिलकी खिलखिला कर हँस दी, फिर क्या बोला आपकी दादी ने?
- कहने लगीं - हट पागल, गिलास वाले तो ऊपर ही हैं, वहाँ गिलास क्या करना है ले जा कर।
इसे तो यहाँ वालों के लिए छोड़ जाना है जैसे वो मेरे लिए छोड़ गए थे। हम बच्चे उनसे मजाक करते, पूछते - झाईजी आप मरोगे कब? वो हँसतीं - तेरे घर पोता होगा तब! उन्हें क्या पता था, मेरे घर पोता नहीं, पोती होगी - चिल्की जैसी... मैंने चिल्की के गाल पर हल्की सी चपत लगाई।
- आपके दादाजी नहीं थे?
- दादाजी थे न – ऊँचे लंबे पठान जैसे। बड़े रोबदार। लेकिन वह पहले ही सफर पर निकल गए थे - दादी को अकेला छोड़ कर। वैसे तो दादा और दादी की आपस में कभी पटरी नहीं बैठती थी, दोनों में छत्तीस का आंकड़ा था - एक पूरब जाए तो दूसरा पच्छिम। दोनों एक दूसरे की टाँग खींचते रहते थे पर एक दूसरे के बगैर रह भी नहीं सकते थे इसलिए जब दादाजी मर गए तो सबको लगा कि अब तो दादी भी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेंगी पर हुआ उल्टा... दादा के जाने के बाद तो दादी का नक्शा ही बदल गया। हमेशा चुप रहने वाली गिट्ठी सी दादी खूब पटर पटर बोलने लगीं, हर शनीचर-इतवार हवन सत्संग में हाजरी लगाने लगीं, कलफ लगी कड़क साड़ियाँ पहनने लगीं। दादी पोते पोतियों के साथ खूब मसखरी करतीं, खूब कहानियाँ सुनातीं... जैसे मैं चिल्की को सुना रही हूँ।
चिल्की बड़ी बूढ़ियों की तरह दोनों गालों पर मुट्ठियाँ टिकाए बैठी रही।
-लेकिन अपने मरने की पूरी तैयारी उन्होंने कर रखी थी। कहतीं - मेरी ये सोने की चूड़ियाँ मेरी बिट्टो को देना, बिट्टो मेरी बुआ का नाम था। ये कान के बुंदे मेरी पोती को, ये सोने की चेन दूसरी पोती को, ये करधन .... ये भी बिट्टो को और ये मेरी आखिरी निशानी ये गिलास... ये भी बिट्टो को... माँ और बाबू जी हँसते - सबकुछ तो आपने भैनजी को दे दिया, हमारे लिए तो कुछ भी नहीं रखा... तो कहतीं - अच्छा, जो चीज उसे पसंद न आए वो तू रख लेना।
- आपकी बुआ को बहुत प्यार करती थीं वो?
- सब माँएँ करतीं हैं - मेरी जबान पर आया पर मैंने बात पलट दी - हाँ , बुआ तो उनकी लाड़ली थीं ही। अच्छा, तो वो हम बच्चों को पास बिठा कर कहतीं तुम लोग भगवान जी को बोलो - अब हमारा दादी से जी भर गया है, अब उसे अपने पास बुला लो, वो अपना बोरिया बिस्तरा बाँध के बैठी है, तुम्हारा रस्ता देख रही है। पर दादी, आप मरना क्यों चाहते हो? हम बच्चे उनसे पूछते। वो कहतीं - मेरी दादी कहा करती थीं...
- माय गॉड, उनकी एक और दादी थीं?
- एक और मतलब? दादी की दादी नहीं हो सकतीं? ... जा, मैं नहीं सुनाती कहानी।
- अच्छा, सॉरी सॉरी, क्या कहती थीं उनकी दादी?
- उनकी दादी कहा करती थीं...  ‘टुरदा फिरदा लोया, बै गया ते गोया, लम्मा पया ते मोया।’
- इसका क्या मतलब होता है दादी?
- हाँ, फिर वो मतलब समझातीं - चलता फिरता आदमी लोहे जैसा मजबूत होता है, जो वो बैठ गया तो गोबर गणेश और लेट गया तो मरे बराबर। कहतीं - मैं तो अब लेट गई, अब उठने की उम्मीद भी नहीं, तो मरे बराबर होने से मरना बेहतर। है न? उनको और कोई तकलीफ तो थी नहीं। बस, टाँगें सूख गई तो चलने फिरने से रह गईं। बाकी उनका हाजमा एकदम दुरुस्त, बदन पे झुर्रियाँ नहीं, याददाश्त ऐसी कि पचास साल पहले किसके घर क्या खाया, वो उनको याद और खाना बिल्कुल टाइम से खाना - बिना घड़ी देखे बोलती थीं - अब चाय का टेम हो गया, अब खाना लगा दो। आँगन में धूप की ढलती परछाईं से समय का अंदाजा लगा लेती थीं। उनकी निवाड़ की मंजी जरा ढीली होने लगती तो कहतीं - कस दो। कोई आता, झट उकड़ूँ हो कर कुहनी के बल आधी उठ जातीं। उन्हें मना करते, झाईजी, आप बैठे रहो, क्यों खटाक से उठ जाते हो। कहतीं - लेटे लेटे मेरी पीठ को बड़ी गरमी लगती है। मेरी पीठ हवा माँगती है।
- पीठ की कोई जबान होती है फिर पीठ माँगती कैसे है? चिल्की हँसने लगी फिर बोली - पर दादी, आप गिलास को क्यों भूल जाते हो बार बार?
ओफ! चिल्की गिलास की कहानी के बगैर मुझे छोड़ने नहीं वाली थी! मैं उसे बार बार भुलावे में डालने की कोशिश करती थीं पर वह मेरी उँगली पकड़ कर मुझे फिर गिलास तक ले आती थी।
- हाँ तो वे उसी गिलास में सुबह से रात तक की हर पीने वाली चीज पीती थीं। पानी, चाय, दूध, लस्सी, शरबत, अटरम शटरम सब कुछ उसी काँसे के गिलास में।
- फिर?
- फिर एक बार क्या हुआ कि गिलास गुम गया। सुबह उठे तो गिलास मिला ही नहीं। मेरी माँ ने उनको स्टील के गिलास में चाय दे दी। वो अपना नियम से उठीं, माँ ने चिलमची में कुल्ला वुल्ला करवाया। जाप वाप करके वो चाय पीने बैठीं। हाथ में गिलास लिया। देखा तो दूसरा गिलास, बोलीं - मैं नहीं पीती, ये लश्कारे वाले गिलास में, मुझे तो मेरा वाला गिलास दो।
- ही ही, जैसे चिल्की का मेरा वाला गिलास... दादी कोई बच्चा थीं?  चिल्की को मजा आ रहा था।
- हाँ, बूढ़े बच्चे तो एक ही जैसे होते हैं। अब उन्होंने जैसे जिद ठान ली - चाय पीनी है तो उसी गिलास में। चाय पड़ी पड़ी ठंडी हो गई। पूरा घर छान मारा। कहीं गिलास का अता पता नहीं। ऐसे अलादीन के जिन की तरह गायब हो गया।
- तो बोलना था, चिल्की ने हाथ लंबा घुमा कर अभिनय के साथ कहा - खुल जा सिमसिम... पर दादी, वो गिलास टूटता तो नहीं था न।
- टूटता तो नहीं था पर गुम तो हो जाता था न बच्चे। तो हम सब बच्चे लग गए उस गिलास को ढूँढ़ने में। ऊपर नीचे सारा घर खँगाल मारा। चारपाइयों के नीचे, आँगन में, छत की मुंडेर पर, कुएँ की जगत पर, अमरूद सीताफल के पेड़ के पास। पर गिलास तो ऐसा गायब हुआ कि बस।
उनको खाना दिया। मेरी माँ ने मिन्नतें कीं कि झाई जी, आप खाना शुरु तो करो, पानी पीने तक गिलास मिल जाएगा। खाना तो गिलास में नहीं खाते न! पर उनकी तो एक ही रट। मेरा गिलास, मेरा गिलास। बाबू जी ने उनको कस कर डाँट लगाई कि क्या तमाशा है, एक गिलास के लिए सारा घर आसमान पे उठा रखा है, गिलास न हुआ कोई कारुँ का खजाना हो गया। अब तो वो लगीं रोने। पहली बार हमने उन्हें रोते देखा। बोलीं – तुम लोगों के लिए वो एक पतरे का गिलास है। मेरे लिए तो वो मेरा लाहौर है, मेरा वेड़ा है, मेरा मायका है, ... मैं बोलते बोलते अटकी - मेरा सबकुछ है।
- वो गिलास मिला फिर? चिल्की ने आँखें गोल करके पूछा।
- नहीं। खाना भी वैसे ही ढँका पड़ा रहा। उन्होंने हाथ नहीं लगाया। शाम तक गिलास मिला नहीं सो शाम की चाय भी नहीं पी। बेहोश सी होने को आईं। आँखें बंद होने लगीं। हम अंदर बाहर ढूँढ़ते रहे। घर के सारे बच्चे बड़े गिलास ढूँढ़ने में लगे थे। आखिर गिलास मिला। पानी रखने की पीतल की कुंडी के तले में पड़ा था। किसी बच्चे के हाथ से गिर गया होगा। किसी को ख्याल ही नहीं आया कि वहाँ भी हो सकता है। जैसे ही गिलास मुझे मिला, मैं चिल्लाई - झाई जी, आपका गिलास... वो एकदम कुहनी के बल उठ गई। फिर उनकी आँखों में ऐसी चमक आई कि पूछो मत। बोलीं - जल्दी खाना लगाओ। बड़ी भूख लगी है। उनको खाना दिया तो उन्होंने बड़े तृप्त हो कर खाया। रात को एक ही रोटी खाती थीं। उस दिन तीन रोटियाँ खाई। चटखारे ले ले कर सब्जियाँ खाई। होठों से गिलास चूम कर उसमें मटके का ठंडा ठंडा पानी पीया। हम सब खुश। दादी का गिलास जो मिल गया था।
- बस, कहानी खतम? चिल्की ने पूछा, फिर क्या हुआ ?
- सुबह हम बच्चे उठे तो देखा - दादी एक हाथ में गिलास छाती से लगाए सो रही हैं और मुस्कुरा रही हैं। हम सब उनके चारों ओर इकट्ठे हो गए - देखो, देखो, दादी नींद में हँस रही है। माँ ने कहा - आज इतनी देर तक कैसे सो रही हैं! सबने कहा - रात को खाना पेट भर कर खाया है न, इसलिए मजे की नींद ले रही हैं। तड़के मुँह अँधेरे सबसे पहले उठने वाली दादी अभी तक सो रही थीं। बाबू जी ने आ कर उन्हें हिलाया तो काँसे का गिलास नीचे गिर गया। दादी मर गई थीं।
‘ हॉ...’ चिल्की का मुँह खुला का खुला रह गया - ‘ मर गईं?’
‘ हाँ।’
‘सो सैड, है न दादी? चिल्की की आँखें भीगी थीं - उनको गिलास नहीं देते तो नहीं मरतीं ना !
‘शायद...’  मैंने अपनी दादी की वह मुस्कान याद करते हुए कहा। पर मैं कहना चाहती थी - ‘मरतीं तो वो तब भी पर तब उनके चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं होती।’
‘वो गिलास अब कहाँ है, दादी?’
‘दादी ने कहा था, मेरी बिट्टो को दे देना। सो मेरी माँ ने दे दिया था वो गिलास बुआ को।’
‘तो उनके पास है?’
‘होना तो चाहिए।’
‘मुझे दिखाओगे दादी?’
‘अच्छा, मिल गया तो तुझे दिखाऊँगी।’
वो गिलास कहाँ मिलने वाला था अब।
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चिल्की को पूरी कहानी सुनाते हुए एक बात मैने छिपा ली थी कि दरअसल वह काँसे का एंटीक गिलास दादा जी का नहीं था, दादी की माँ का था। अपनी माँ के मरने के बाद यही एक चीज उन्हें विरासत में मिली थी। उसमें उन्हें अपनी माँ, अपना मायका, अपना लाहौर दिखता था। चिल्की को मैंने बहला दिया था पर मुझे पता था कि बुआ अपनी बेटियों के पास अमेरिका गईं तो पुराने बर्तन – भाँडे यहीं छोड़ गईं। पुराने पीतल के बर्तनों के साथ वह काँसे का गिलास भी कोई कबाड़ी आ कर ले गया होगा, क्या पता।
चिल्की ने ठीक कहा था - काँसे का गिलास टूटता नहीं था पर ...
पर वो गिलास खो गया था, इसमें शक नहीं ।
                                                                      सुधा अरोड़ा

Thursday 25 August 2016

KABULIWALA HINDI SHORT STORY

काबुलीवाला

मेरी पांच वर्ष की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया होगा। उसके बाद से जितनी देर तक सो नहीं पाती है, उस समय का एक पल भी वह चुप्पी में नहीं खोती। उसकी माता बहुधा डांट-फटकारकर उसकी चलती हुई जबान बन्द कर देती है; किन्तु मुझसे ऐसा नहीं होता, मिनी का मौन मुझे ऐसा अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है, कि मुझसे वह अधिक देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसके भावों का आदान-प्रदान कुछ अधिक उत्साह के साथ होता रहता है।

सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें अध्‍याय में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना आरम्भ कर दिया-''बाबूजी! रामदयाल दरबान कल 'काक' को कौआ कहता था। वह कुछ जानता ही नहीं, न बाबूजी?''

विश्व की भाषाओं की विभिन्नता के विषय में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया- ''बाबूजी! भोला कहता था आकाश मुंह से पानी फेंकता है, इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।''

इस विषय में मेरी राय की तनिक भी राह न देख करके, चट से धीमे स्वर में एक जटिल प्रश्न कर बैठी, बाबूजी, मां तुम्हारी कौन लगती है?''

मन-ही-मन में मैंने कहा साली और फिर बोला- ''मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।''

तब उसने मेरी मेज के पार्श्व में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी शीघ्रता से मुंह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटाके' कहना आरम्भ कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के अध्‍याय में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार में बन्दीगृह के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई सरिता में कूद रहे थे।

मेरा घर सड़क के किनारे पर था, सहसा मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ''काबुल वाला, ओ काबुल वाला।''

मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर कुल्ला रखे, उस पर साफा बांधे कन्धे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाये, हाथ में चमन के अंगूरों की कुछ पिटारियां लिये, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली मन्द चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के हृदय में कैसे भाव उदय हुए वह बताना असम्भव है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कन्धे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवां अध्‍याय आज अधूरा रह जायेगा।

किन्तु मिनी के चिल्लाने पर ज्योंही काबुली ने हंसते हुए उसकी ओर मुंह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा; त्योंही मिनी भय खाकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहां छिप गई? उसके छोटे से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मैली-कुचैली झोली के अन्दर ढूंढ़ने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्ची निकल सकती हैं।

इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे हाथ उठाकर अभिवादन किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, वास्तव में प्रतापसिंह और कंचनमाला की दशा अत्यन्त संकटापन्न है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।

कुछ सौदा खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी।

अन्त में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा- ''बाबूजी, आपकी बच्ची कहां गई?''

मैंने मिनी के मन से व्यर्थ का भय दूर करने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल लगकर काबुली के मुख और झोली की ओर सन्देहात्मक दृष्टि डालती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देनी चाहीं, पर उसने न लीं, और दुगुने सन्देह के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। उसका पहला परिचय इस प्रकार हुआ।

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे मैं किसी आवश्यक कार्यवश बाहर जा रहा था? देखूं तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बैंच पर बैठी हुई काबुली से हंस-हंसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के समीप बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उन्हें ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में व्यक्त करता जाता है। मिनी को अपने पांच वर्ष के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धैर्य वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। देखा तो, उसका फिराक का अग्रभाग बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा- ''इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना?''कहकर कुर्ते की जेब में से एक अठन्नी निकालकर उसे दी। उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली?

कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।

मिनी की मां एक सफेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिये डांट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी- ''तूने यह अठन्नी पाई कहां से, बता?''

मिनी ने कहा- ''काबुल वाले ने दी है।''

''काबुल वाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?''

मिनी ने रोने का उपक्रम करते हुए कहा-''मैंने मांगी नहीं थी, उसने आप ही दी है।''

मैंने जाकर मिनी की उस अकस्मात मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।

मालूम हुआ कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही भेंट थी, सो बात नहीं। इस दौरान में वह रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से हृदय पर बहुत अधिकार कर लिया है।

देखा कि इस नई मित्रता में बंधी हुई बातें और हंसी ही प्रचलित है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हंसती हुई पूछती- ''काबुल वाला और काबुल वाला, तुम्हारी झोली के भीतर क्या है? काबुली जिसका नाम रहमत था, एक अनावश्यक चन्द्र-बिन्दु जोड़कर मुस्कराता हुआ उत्तर देता- ''हां बिटिया उसके परिहास का रहस्य क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए मित्रों को इससे तनिक विशेष खेल-सा प्रतीत होता है और जाड़े के प्रभात में एक सयाने और एक बच्ची की सरल हंसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।

उन दोनों मित्रों में और भी एक-आध बात प्रचलित थी। रहमत मिनी से कहता-''तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?''

हमारे देश की लड़कियां जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित रहती हैं; किन्तु हम लोग तनिक कुछ नई रोशनी के होने के कारण तनिक-सी बच्ची को ससुराल के विषय में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, अत: रहमत का अनुरोध वह स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाती थी; इस पर भी किसी बात का उत्तर दिये बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुध्द था। उल्टे वह रहमत से ही पूछती- ''तुम ससुराल जाओगे?''

रहमत काल्पनिक श्वसुर के लिए अपना जबर्दस्त घूंसा तानकर कहता- ''हम ससुर को मारेगा।''

सुनकर मिनी 'ससुर' नामक किसी अनजाने जीव की दुरावस्था की कल्पना करके खूब हँसती।

देखते-देखते जाड़े की सुहावनी ऋतु आ गई। पूर्व युग में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन ब्रह्माण्ड में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में ही चिर प्रवासी हूं, बाहरी ब्रह्माण्ड के लिए मेरा मन सर्वदा आतुर रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन वहीं की उड़ान लगाने लगता है। इसी प्रकार किसी विदेशी को देखते ही तत्काल मेरा मन सरिता-पर्वत-बीहड़ वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वतंत्र जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

इधर देखा तो मैं ऐसी प्रकृति का प्राणी हूं, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सवेरे के समय अपने छोटे से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ भ्रमण का काम निकाल लिया करता हूं। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों ओर ऊबड़खाबड़, लाल-लाल ऊंचे दुर्गम पर्वत हैं और रेगिस्तानी मार्ग, उन पर लदे हुए ऊंटों की कतार जा रही है। ऊंचे-ऊंचे साफे बांधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊंट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। किन्हीं के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। बादलों की भयानक गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।

मिनी की मां बड़ी वहमी तबीयत की है। राह में किसी प्रकार का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं? उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, सांप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।

रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह निश्चिंत नहीं थी। उस पर विशेष नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार अनुरोध करती रहती। जब मैं उसके शक को परिहास के आवरण से ढकना चाहता तो मुझसे एक साथ कई प्रश्न पूछ बैठती- ''क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना असम्भव है?'' इत्यादि।

मुझे मानना पड़ता कि यह बात नितान्त असम्भव हो सो बात नहीं पर भरोसे के काबिल नहीं। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती,अत: मिनी की मां के मन में भय ही रह गया लेकिन केवल इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर सका।

हर वर्ष रहमत माघ मास में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, लेकिन फिर भी मिनी से उसकी भेंट एक बार अवश्य हो जाती है। देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के मध्य किसी षडयंत्र का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सेवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखूं तो वह संध्या को हाजिर है। अंधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक भय-सा पैदा हो जाता है।

लेकिन, जब देखता हूं कि मिनी 'ओ काबुल वाला' पुकारती हुई हंसती-हंसती दौड़ी आती है और दो भिन्न-भिन्न आयु के असम मित्रों में वही पुराना हास-परिहास चलने लगता है, तब मेरा सारा हृदय खुशी से नाच उठता है।

एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई पुस्तक के प्रूफ देख रहा था। जाड़ा, विदा होने से पूर्व, आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी प्रतीत होने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे ऊषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय राह में एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।

देखूं तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बांधे लिये जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशाही बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के ढीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने द्वार से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा- ''क्या बात है?''

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपये उसकी ओर बाकी थे,जिन्हें देने से उसने साफ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।

रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अपशब्द सुना रहा था। इतने में ''काबुल वाला! ओ काबुल वाला!'' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से चमक उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी। अत: झोली के बारे में दोनों मित्रों की अभ्यस्त आलोचना न चल सकी। मिनी ने आते के साथ ही उसने पूछा- ''तुम ससुराल जाओगे।''

रहमत ने प्रफुल्लित मन से कहा- ''हां, वहीं तो जा रहा हूं।''

रहमत ताड़ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हंसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा- ''ससुर को मारता, पर क्या करूं,हाथ बंधे हुए हैं।''

छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई वर्ष का कारावास मिला।

रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर सदा के अभ्यस्त होने के कारण, नित्य के काम-धन्धों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक स्वाधीन पर्वतों पर घूमने वाला इन्सान कारागार की प्राचीरों के अन्दर कैसे वर्ष पर वर्ष काट रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी उठी ही नहीं।

और चंचल मिनी का आचरण तो और भी लज्जाप्रद था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी वयोवृध्दि होने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक उसकी सखियां जुटने लगीं और तो क्या, अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।

कितने ही वर्ष बीत गये? वर्षों बाद आज फिर एक शरद ऋतु आई है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसका विवाह हो जायेगा। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनन्दमयी मिनी भी मां-बाप के घर में अंधेरा करके ससुराल चली जायेगी।

सवेरे दिवाकर बड़ी सज-धज के साथ निकले। वर्षों के बाद शरद ऋतु की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की संकरी गलियों से परस्पर सटे हुए पुराने ईटझर गन्दे घरों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक प्रकार का अनोखा सौन्दर्य बिखेर दिया है।

हमारे घर पर दिवाकर के आगमन से पूर्व ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे यह मेरे हृदय की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी विच्छेद पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी का आज विवाह है।

सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का तांता बंधा हुआ है। आंगन में बांसों का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाये जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की तो कोई गिनती ही नहीं है।

मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य ज्योति ही थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।

मैंने पूछा-''क्यों रहमत, कब आये?''

उसने कहा-''कल शाम को जेल से छूटा हूं।''

सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आंखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया? मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहां से टल जाये तो अच्छा हो।

मैंने उससे कहा- ''आज हमारे घर में कुछ आवश्यक काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।''

मेरी बात सुनकर वह उसी क्षण जाने को तैयार हो गया। पर द्वार के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला- ''क्या, बच्ची को तनिक नहीं देख सकता?''

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुल वाला, ओ काबुल वाला' पुकारती हुई दौड़ी चली आयेगी। उन दोनों के पहले हास-परिहास में किसी प्रकार की रुकावट न होगी? यहां तक कि पहले की मित्रता की याद करके वह एक पेटी अंगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से मांग-तांगकर लेता आया था? उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।

मैंने कहा- ''आज घर में बहुत काम है। सो किसी से भेंट न हो सकेगी?''

मेरा उत्तर सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। उसी मुद्रा में उसने एक बार मेरे मुख की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। फिर अभिवादन करके दरवाजे के बाहर निकल गया।

मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊं, इतने में देखा तो वह स्वयं ही आ रहा है।

वह पास आकर बोला- ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजियेगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा- ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूं। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे से हाथ के छोटे से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं हाथ में थोड़ी सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आंखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्चवंश का रईस हूं। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूं। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालांकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उस अवस्था में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हंसते हुए बोला- ''लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?''

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी, अत: अब उससे पहले की तरह उत्तर देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे लज्जा के उसके कपोल लाल-सुर्ख हो उठे। उसने मुंह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जबकि रहमत के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन मे एक पीड़ा की लहर दौड़ गई।

मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी सांस लेकर रहमत फर्श पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। सम्भवत: वह उसे पहले जैसी नहीं पायेगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की स्निग्ध सूर्य किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का दृश्य देखने लगा।

मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, ''रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पायेगी।''

रहमत को रुपये देने के बाद विवाह के हिसाब में से मुझे उत्सव-समारोह के दो-एक अंग छांटकर काट देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब-कुछ हुआ, फिर भी मेरा विचार है, कि आज एक अपूर्व ज्योत्स्ना से हमारा शुभ समारोह उज्ज्वल हो उठा।

                                                                                                                                 रविन्द्रनाथ टैगोर

Friday 19 August 2016

HINDI SHAYARI IN HINDI FONT JAN NISAR AKHTAR

जाँ निसार अख्‍तर
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आँखों में जो भर लोगेतो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदाये रिसालेये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

 

सुबह की आस

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है
शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छंट जाती है
बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है
आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है
हाँ ख़बरदार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है
                     Jan Nisar Akhtar

Wednesday 17 August 2016

BEST SHAYARI IN HINDI BY NAZEER AKBARABAADI

डरो बाबा
बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा।
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा।
दिल, हाथ उठा इस जीने से, बस मन मार, मरो बाबा।
जब बाप की ख़ातिर रोते थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

ये अस्प बहुत कूदा उछला अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो।
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो।
गढ़ टूटा, लश्कर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो।
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है।
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है।
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है।
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो।
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो।
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, या फ़न्द करो।
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा ॥

व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो।
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो।
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो।
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो।
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो।
अब शाम नहीं, अब सुब्‌ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो।
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा॥
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
                                                               नज़ीर अकबराबादी

Monday 15 August 2016

HINDI POMES BY BHAGVATI CHARAN VERMA

पतझड़ के पीले पत्तों ने 

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !
                                          भगवतीचरण वर्मा