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Friday 19 August 2016

HINDI SHAYARI IN HINDI FONT JAN NISAR AKHTAR

जाँ निसार अख्‍तर
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आँखों में जो भर लोगेतो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदाये रिसालेये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

 

सुबह की आस

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है
शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छंट जाती है
बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है
आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है
हाँ ख़बरदार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है
                     Jan Nisar Akhtar

Wednesday 17 August 2016

BEST SHAYARI IN HINDI BY NAZEER AKBARABAADI

डरो बाबा
बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा।
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा।
दिल, हाथ उठा इस जीने से, बस मन मार, मरो बाबा।
जब बाप की ख़ातिर रोते थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

ये अस्प बहुत कूदा उछला अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो।
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो।
गढ़ टूटा, लश्कर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो।
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है।
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है।
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है।
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो।
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो।
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, या फ़न्द करो।
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा ॥

व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो।
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो।
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो।
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो।

तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो।
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो।
अब शाम नहीं, अब सुब्‌ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो।
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा॥
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
                                                               नज़ीर अकबराबादी

Monday 15 August 2016

HINDI POMES BY BHAGVATI CHARAN VERMA

पतझड़ के पीले पत्तों ने 

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !
                                          भगवतीचरण वर्मा

Wednesday 10 August 2016

URDU SHAYARI IN HINDI BY KHUMAR BARABANKAVI

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमारआप काफ़िर हुए जा रहे हैं  

ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
ग़मे-दुनिया बहुत ईज़ारसाँ है
कहाँ है ऐ ग़मे-जानाँ! कहाँ है

इक आँसू कह गया सब हाल दिल का
मैं समझा था ये ज़ालिम बेज़बाँ है

ख़ुदा महफ़ूज़ रखे आफ़तों से
कई दिन से तबीयत शादमाँ है

वो काँटा है जो चुभ कर टूट जाए
मोहब्बत की बस इतनी दासताँ है

ये माना ज़िन्दगी फ़ानी है लेकिन
अगर आ जाए जीनाजाविदाँ है

सलामे-आख़िर अहले-अंजुमन को
'ख़ुमारअब ख़त्म अपनी दास्ताँ है

हिज्र की शब है और उजाला है

हिज्र की शब है और उजाला है
क्या तसव्वुर भी लुटने वाला है

ग़म तो है ऐन ज़िन्दगी लेकिन
ग़मगुसारों ने मार डाला है

इश्क़ मज़बूर-ओ-नामुराद सही
फिर भी ज़ालिम का बोल-बाला है

देख कर बर्क़  की परेशानी
आशियाँ  ख़ुद ही फूँक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम में उसने ढाला है

तेरी बातों को मैंने ऐ वाइज़
एहतरामन हँसी में टाला है

मौत आए तो दिन फिरें शायद
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है

शेर नज़्में शगुफ़्तगी मस्ती
ग़म का जो रूप है निराला है

लग़्ज़िशें मुस्कुराई हैं क्या-क्या
होश ने जब मुझे सँभाला है

दम अँधेरे में घुट रहा है "ख़ुमार"
और चारों तरफ उजाला है
                ख़ुमार बाराबंकवी

BEAUTIFUL SHAYARI

निगाहो दिल का अफसाना
निगाहो दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया सहर या वक्त-ए-शाम आया ।।
ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकीं दिल का मुकाम आया ।
न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बाला-ए-बाम आया ।
इसे आँसू न कह एक याद अय्यामे गुलिस्‍ताँ है,मेरी उम्रे रवां को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।
बरहमन आब-ए-गंगा शैख कौसर ले उड़ा उससे,तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया  
                                      आनन्‍दनारायण मुल्‍ला

सृजन का दर्द 

अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है
                         कन्हैयालाल नंदन

Saturday 6 August 2016

ULTIMATE SHAYARI BY MAJAZ LAKHNAVI

नौजवान ख़ातून से
हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था
तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था
तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में 
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था
ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है


जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है 
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना 

तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है 
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों 

तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं

अभी तो आँख भी पुरनम नहीं है
'मजाज़इक बादाकश तो है यक़ीनन 

जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है

चार ग़ज़लें
[एक]


हुस्न को बेहिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था

हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तिराब न पूछो
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था।
तेरे जलवों में घिर गया आख़िर
ज़र्रे को आफ़ताब होना था।
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था।

[दो]

कमाल-ए-इश्क़ है दीवानः हो गया हूँ मैं
ये किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं
ये मेरे इश्क़ मजबूरियाँ मा’ज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं
इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुमको देखता हूँ मैं
बनाने वाले वहीं पर बनाते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
कभी ये ज़ौम कि तू मुझसे छिप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छिपा हुआ हूँ मैं
मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बादः ए-इशरत
मजाज़ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं


[तीन]


हुस्न फिर फ़ित्न (त्‌न) ग़र है क्या कहिए,
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए।

फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए,
ज़िंदगी राह पर है क्या कहिए।
हुस्न ख़ुद पर्दादर है क्या कहिए,
ये हमारी नज़र है क्या कहिए।
आह तो बेअसर थी बरसों से,
नग़्म भी बेअसर है क्या कहिए।
हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए।
आज भी है मजाज़ ख़ाकनशीन,
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए।

[चार]



कुछ तुझको ख़बर है हम क्या-क्या, ऐ शोरिश-ए-दौरां भूल गये।
वो ज़ुल्फ़-ए-परीशां भूल गये, वो दीदः-ए-गिरियां भूल गये।

ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए, नज़ारों में कोई सूरत ही नहीं।
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कहिए,हम सूरत-ए-जानां भूल गये।
अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं, अब दिल की कली खिलती ही नहीं।
ऐ फ़स्ल-ए-बहारां रूख़सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहारां भूल गये।
सबका तो मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके।
सबके तो गरेबां सी डाले, अपना ही गरेबां भूल गये।
ये अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
इक नश्तर-ए-ज़हर आगीं रखकर नज़दीक-ए-रग-ए-जां भूल गये।
                                      Majaz Lakhnavi

Monday 1 August 2016

HINDI SHAYARI IN HINDI

चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल जलाएँ
जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएँ
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएँ
चलो फिर से दिल लगाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ
किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
ये मिलन की, ना-मिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गई हैं रातें
जो बिसर गई हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएँ
कोई इनका गीत गाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल लगाएँ
                        faiz-ahmad

SHAYARI IN HINDI

आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर''
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम्म'ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर
फिर सबा साया-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात भर
एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर
                                  faiz-ahmad

Tuesday 26 July 2016

DESH BHAKTI SHAYARI IN HINDI

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
है अहले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद
कि संगो-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
बहुत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए
जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं
बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं
बुझा जो रौज़ने-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल ब-हम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं
                        faiz-ahmad

SHAYARI IN HINDI FONTS

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की 
बरकतें थीं शराबख़ाने की 
कौन है जिससे गुफ़्तगू कीजे 
जान देने की दिल लगाने की 
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल 
उनसे जो बात थी बताने की 

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल 
रह गई आरज़ू सुनाने की 
चाँद फिर आज भी नहीं निकला 
कितनी हसरत थी उनके आने की

                    faiz-ahmad

Saturday 25 June 2016

BEST SHAYARI IN HINDI FONT ON LIFE

लिख रहा हूँ अंजाम जिसका कल आगाज़ आएगा;
मेरे लहू का हर एक क़तरा इंक़लाब लाएगा;
मैं रहूँ या ना रहूँ पर ये वादा है तुमसे मेरा कि;
मेरे बाद वतन पे मरने वालों का सैलाब आएगा।
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दिल में अब यूँ तेरे भूले हुये ग़म आते हैं;
जैसे बिछड़े हुये काबे में सनम आते हैं।
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अजीब रंग का मौसम चला है कुछ दिन से;
नज़र पे बोझ है और दिल खफा है कुछ दिन से;
वो और थे जिसे तू जानता था बरसों से;
मैं और हूँ जिसे तू मिल रहा है कुछ दिन से।
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बहुत ख़ास थे कभी नज़रों में किसी के हम भी;
मगर नज़रों के तकाज़े बदलने में देर कहाँ लगती है।
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अपनी ज़िन्दगी में मुझ को करीब समझना;
कोई ग़म आये तो उस ग़म में भी शरीक समझना;
दे देंगे मुस्कुराहट आँसुओं के बदले;
मगर हज़ारों में मुझे थोड़ा अज़ीज़ समझना।
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कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम;
उस निगाह--आशना को क्या समझ बैठे थे हम;

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये;
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम;

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल--दिल को हो सकी;
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम;

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़--दर्द;
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम;

भूल बैठी वो निगाह--नाज़ अहद--दोस्ती;
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम;

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और 'फ़िराक़';
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम।
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वो कभी मिल जाएं तो क्या कीजिये;
रात दिन सूरत को देखा कीजिये;
चाँदनी रातों में एक एक फूल को;
बेखुदी कहती है सज़दा कीजिये।
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कुछ मतलब के लिए ढूँढते हैं मुझको;
बिन मतलब जो आए तो क्या बात है;
कत्ल कर के तो सब ले जाएँगे दिल मेरा;
कोई बातों से ले जाए तो क्या बात है।
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तेरी यादें भी मेरे बचपन के खिलौने जैसी हैं;
तन्हा होता हूँ तो इन्हें लेकर बैठ जाता हूँ।

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अपनी ज़िन्दगी का अलग उसूल है;
प्यार की खातिर तो काँटे भी कबूल हैं;
हँस के चल दूँ काँच के टुकड़ों पर;
अगर तू कह दे ये मेरे बिछाये हुए फूल हैं।
===================================
तुझ से अब और मोहब्बत नहीं की जा सकती;
ख़ुद को इतनी भी अज़िय्यत नहीं दी जा सकती;

जानते हैं कि यक़ीं टूट रहा है दिल पर;
फिर भी अब तर्क ये वहशत नहीं की जा सकती;

हब्स का शहर है और उस में किसी भी सूरत;
साँस लेने की सहूलत नहीं दी जा सकती;

रौशनी के लिए दरवाज़ा खुला रखना है;
शब से अब कोई इजाज़त नहीं ली जा सकती;

इश्क़ ने हिज्र का आज़ार तो दे रक्खा है;
इस से बढ़ कर तो रिआयत नहीं दी जा सकती।
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किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ।
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उनसे मिलने की जो सोचें अब वो ज़माना नहीं;
घर भी उनके कैसे जायें अब तो कोई बहाना नहीं;
मुझे याद रखना तुम कहीं भुला ना देना;
माना कि बरसों से तेरी गली में आना-जाना नहीं।
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क्या गज़ब है उसकी ख़ामोशी;
मुझ से बातें हज़ार करती है।
===================================
एक मुद्दत से मेरे हाल से बेगाना है;
जाने ज़ालिम ने किस बात का बुरा माना है;
मैं जो ज़िद्दी हूँ तो वो भी कुछ कम नहीं;
मेरे कहने पर कहाँ उसने चले आना है।
===================================
जब रूख़--हुस्न से नक़ाब उठा;
बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा;

डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती;
दिल में तूफ़ान--इजि़्तराब उठा;

मरने वाले फ़ना भी पर्दा है;
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा;

शाहिद--मय की ख़ल्वतों में पहुँच;
पर्दा--नश्शा--शराब उठा;

हम तो आँखों का नूर खो बैठे;
उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा;

होश नक़्स--ख़ुदी है 'एहसान';
ला उठा शीशा--शराब उठा।
===================================
यह हम ही जानते हैं जुदाई के मोड़ पर;
इस दिल का जो भी हाल तुझे देख कर हुआ।
===================================
हसीनों ने हसीन बन कर गुनाह किया;
औरों को तो क्या हमको भी तबाह किया;
पेश किया जब ग़ज़लों में हमने उनकी बेवफाई को;
औरों ने तो क्या उन्होंने भी वाह - वाह किया।
===================================
ज़रा साहिल पे आकर वो थोड़ा मुस्कुरा देती;
भंवर घबरा के खुद मुझ को किनारे पर लगा देता;
वो ना आती मगर इतना तो कह देती मैं आँऊगी;
सितारे, चाँद सारा आसमान राह में बिछा देता।

===================================

यादों को भुलाने में कुछ देर तो लगती है;
आँखों को सुलाने में कुछ देर तो लगती है;
किसी शख्स को भुला देना इतना आसान नहीं होता;
दिल को समझाने में कुछ देर तो लगती है।
===================================
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे;
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे;

मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स;
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे;

मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी;
मेरे रक़ीब की मुझे बददुआ लगे;

वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों;
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे;

तर्क--वफ़ा के बाद ये उस की अदा 'क़तील';
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे।
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माँगने से मिल सकती नहीं हमें एक भी ख़ुशी;
पाये हैं लाख रंज तमन्ना किये बगैर।
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जब कोई ख्याल दिल से टकराता है;
दिल ना चाह कर भी खामोश रह जाता है;
कोई सब कुछ कह कर प्यार जताता है;
तो कोई कुछ ना कह कर प्यार निभाता है।
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अभी मशरूफ हूँ काफी कभी फुर्सत में सोचूंगा;
कि तुझको याद रखने में मैं क्या - क्या भूल जाता हूँ।
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तुम्हें भूले पर तेरी यादों को ना भुला पाये;
सारा संसार जीत लिया बस एक तुम से ना हम जीत पाये;
तेरी यादों में ऐसे खो गए हम कि किसी को याद ना कर पाये;
तुमने मुझे किया तनहा इस कदर कि अब तक किसी और के ना हम हो पाये।
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किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ;
सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ

वो भी क्या दिन थे कि हर वहम यकीं होता था;
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ;

दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे;
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ;

ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी;
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ।
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वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है;
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है;
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से;
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है।
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क्या कहें कुछ भी कहा नहीं जाता;
दर्द मिलता है पर सहा नहीं जाता;
हो गयी है मोहब्बत आपसे इस कदर;
कि अब तो बिन देखे आप को जिया नहीं जाता।
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तेरे हर ग़म को अपनी रूह में उतार लूँ;
ज़िन्दगी अपनी तेरी चाहत में संवार लूँ;
मुलाक़ात हो तुझसे कुछ इस तरह मेरी;
सारी उम्र बस एक मुलाक़ात में गुज़ार लूँ।

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पढ़ने वालों की कमी हो गयी है आज इस ज़माने में;
नहीं तो गिरता हुआ एक-एक आँसू पूरी किताब है।
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देख दिल को मेरे काफ़िर--बे-पीर तोड़;
घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर तोड़;

ग़ुल सदा वादी--वहशत में रखूँगा बरपा;
जुनूँ देख मेरे पाँव की ज़ंजीर तोड़;

देख टुक ग़ौर से आईना--दिल को मेरे;
इस में आता है नज़र आलम--तस्वीर तोड़;

ताज--ज़र के लिए क्यूँ शमा का सर काटे है;
रिश्ता--उल्फ़त--परवाना को गुल-गीर तोड़;

अपने बिस्मिल से ये कहता था दम--नज़ा वो शोख़;
था जो कुछ अहद सो आशिक़--दिल-गीर तोड़;

सहम कर 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह;
खींच कर देख मेरे सीने से तू तीर तोड़।
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हम उस से थोड़ी दूरी पर हमेशा रुक से जाते हैं;
जाने उस से मिलने का इरादा कैसा लगता है;
मैं धीरे धीरे उन का दुश्मन--जाँ बनता जाता हूँ;
वो आँखें कितनी क़ातिल हैं वो चेहरा कैसा लगता है।
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आँखों से आँखें मिलाकर तो देखो;
हमारे दिल से दिल मिलाकर तो देखो;
सारे जहान की खुशियाँ तेरे दामन में रख देंगे;
हमारे प्यार पर ज़रा ऐतबार करके तो देखो।
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रोज साहिल से समंदर का नज़ारा करो;
अपनी सूरत को शबो-रोज निहारा करो;
आओ देखो मेरी नज़रों में उतर कर ख़ुद को;
आइना हूँ मैं तेरा मुझसे किनारा करो।
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ना जाने कब वो हसीन रात होगी;
जब उनकी निगाहें हमारी निगाहों के साथ होंगी;
बैठे हैं हम उस रात के इंतज़ार में;
जब उनके होंठों की सुर्खियां हमारे होंठों के साथ होंगी।
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कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं;
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं;

मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ;
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं;

आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात;
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं;

जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा;
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं।
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मोहब्बत एक दम दुख का मुदावा कर नहीं देती;
ये तितली बैठती है ज़ख़्म पर आहिस्ता आहिस्ता।
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मेरी चाहत को अपनी मोहब्बत बना के देख;
मेरी हँसी को अपने होंठो पे सज़ा के देख;
ये मोहब्बत तो हसीन तोहफा है एक;
कभी मोहब्बत को मोहब्बत की तरह निभा कर तो देख।
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ना हम रहे दिल लगाने के काबिल;
ना दिल रहा ग़म उठाने के काबिल;
लगे उसकी यादों के जो ज़ख़्म दिल पर;
ना छोड़ा उसने फिर मुस्कुराने के काबिल।
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दो मशहूर शायरों के अपने-अपने अंदाज
पहले मिर्ज़ा गालिब...............
उड़ने दे इन परिंदों को आज़ाद फिजां मेंगालिब
जो तेरे अपने होंगे वो लौट आएँगे…..................